बिहार का अंतिम मतदाता सूची जारी: 7.42 करोड़ मतदाता, 47 लाख नाम हटे
बिहार के अंतिम मतदाता सूची का अपडेट जारी हो गया है — और ये बदलाव राजनीति के खेल में एक नया मोड़ ला सकता है। चुनाव आयोग ऑफ इंडिया ने 28 अक्टूबर, 2025 को विशेष तीव्र संशोधन (SIR) के बाद अंतिम सूची जारी की, जिसमें 4.7 करोड़ मतदाताओं के नाम हटाए गए और 2.1 करोड़ नए नाम जोड़े गए। परिणाम? कुल मतदाता संख्या 7.42 करोड़ हो गई। ये संख्या सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक ऐसा राजनीतिक अंकगणित है जिसका असर अगले विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा।
क्यों हुआ ये संशोधन?
ये संशोधन किसी आधिकारिक आदेश से नहीं, बल्कि एक गैर-सरकारी संगठन के आवेदन से शुरू हुआ। डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के लिए संघ (ADR) ने चुनाव आयोग के खिलाफ एक याचिका दायर की, जिसमें बिहार में भारी मात्रा में नकली या दोहरे मतदाता नामों के होने का आरोप लगाया गया। आयोग ने इसका जवाब एक अभूतपूर्व तरीके से दिया — दरवाज़े-दरवाज़े जाकर वोटर्स को सीधे एकत्रित किया। 4.89 करोड़ से अधिक मतदाताओं के लिए बूथ स्तरीय अधिकारी (BLOs) घूमे, फॉर्म भरवाए, और डेटा को एक अद्वितीय सत्यापन प्रणाली से गुज़ारा। ये सिर्फ एक अपडेट नहीं, बल्कि एक जनतांत्रिक अभियान था।
65 लाख नाम हटे? फिर क्यों अंतिम सूची में 47 लाख?
यहीं से शुरू होती है असली कहानी। 1 अगस्त, 2025 को चुनाव आयोग ने पहली खाका सूची जारी की, जिसमें 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए गए थे। ये आंकड़ा देखकर बिहार के कई जिलों में आंदोलन शुरू हो गए। लेकिन फिर आया दावा-आपत्ति का चरण — जिसमें लाखों ने अपने नाम वापस लेने के लिए आवेदन किया। अंतिम सूची में ये नामों की संख्या 47 लाख तक कम हो गई। यानी लगभग 18 लाख नाम वापस आ गए। लेकिन यहीं पर एक बड़ा विरोधाभास है। बिजनेस टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, अंतिम सूची 7.24 करोड़ मतदाता दिखा रही है — जो 7.42 करोड़ से 18 लाख कम है। चुनाव आयोग ने अभी तक इस अंतर की स्पष्टीकरण नहीं दिया है।
सुपौल और किशनगंज: सुप्रीम कोर्ट की नजर में
कुछ जिलों में तो ये संशोधन अभी भी न्यायालय के दरबार में चल रहा है। सुपौल और किशनगंज जैसे जिलों में नाम हटाने की प्रक्रिया पर सवाल उठ रहे हैं। क्या वोटर्स को वास्तविक अवसर मिला था अपने नाम बचाने का? क्या दस्तावेज़ों की मांग बहुत कठोर थी? सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने इन जिलों के लिए एक विशेष समीक्षा शुरू कर दी है। अभी तक इन जिलों में लगभग 8.5 लाख नाम हटाए गए थे — जिसमें से बहुत से नाम वास्तविक मतदाताओं के थे।
अगला चरण: 12 राज्यों में शुरू हुआ SIR
बिहार का अनुभव अब पूरे देश के लिए मॉडल बन रहा है। 28 अक्टूबर को ही चुनाव आयोग ने विशेष तीव्र संशोधन (SIR) फेज 2 शुरू कर दिया — तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल सहित 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में। इस बार आयोग ने एक बड़ा बदलाव किया है — �धार को अब एक मान्य दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया जाएगा। ये बदलाव उन लोगों के लिए एक राहत है जिन्हें आधिकारिक दस्तावेज़ों की कमी के कारण नाम हटाया गया था।
अगले कदम: जानिए टाइमलाइन
- 9 दिसंबर, 2025: इन 12 राज्यों में खाका मतदाता सूची जारी
- 8 जनवरी, 2026: दावा-आपत्ति का अंतिम दिन
- 7 फरवरी, 2026: अंतिम सूची जारी
इस बार चुनाव आयोग ने ऑनलाइन पोर्टल voters.eci.gov.in पर फॉर्म 6 और बिहार के लिए एनक्सर्चर D की सुविधा भी बढ़ाई है। लेकिन ये तकनीकी सुविधा उन लोगों तक नहीं पहुंच रही है जिन्हें डिजिटल लिटरेसी की कमी है। ये एक बड़ी चुनौती है।
क्या ये चुनाव के लिए निष्पक्ष है?
राजनीतिक दलों के बीच बहस जारी है। कुछ दल कह रहे हैं कि ये संशोधन एक छिपी हुई रणनीति है — जिसमें गरीब, अनुसूचित जाति और आदिवासी मतदाताओं के नाम जानबूझकर हटाए जा रहे हैं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग का कहना है कि ये सिर्फ धोखाधड़ी को रोकने के लिए है। लेकिन एक बात साफ है — जब 4.7 करोड़ नाम हट जाएं, तो ये निष्पक्षता का सवाल नहीं, बल्कि न्याय का सवाल बन जाता है।
ग्रेजुएट और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अलग सूची
बिहार के चुनाव आयुक्त कार्यालय ने एक और बड़ी घोषणा की है — ग्रेजुएट और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र (TC/GC-2025) के लिए अलग मतदाता सूची तैयार की जा रही है। ये एक विशेष वर्ग है जो विधान परिषद के सदस्य चुनता है। इसका मतलब है कि एक ही व्यक्ति के दो अलग-अलग मतदाता नाम हो सकते हैं — एक सामान्य और एक विशेष। ये व्यवस्था बहुत पुरानी है, लेकिन अब इसकी जांच भी शुरू हो सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
क्या बिहार के मतदाता सूची में हटाए गए नाम वापस आ सकते हैं?
हाँ, अगर कोई व्यक्ति अपने नाम हटाए जाने के बारे में आपत्ति दर्ज करता है और उसका दस्तावेज़ सत्यापित हो जाता है, तो उसका नाम अंतिम सूची में वापस आ जाता है। बिहार में 18 लाख नाम इसी तरह वापस आए। लेकिन यह आवेदन के दौरान ही होता है — अंतिम सूची जारी होने के बाद वापसी का कोई रास्ता नहीं होता।
आधार क्यों अब मान्य दस्तावेज़ बना?
बिहार में कई मतदाताओं के पास बिजली बिल, राशन कार्ड या निवास प्रमाणपत्र नहीं थे, लेकिन आधार था। चुनाव आयोग ने यह निर्णय लिया कि आधार एक विश्वसनीय पहचान का साधन है। इससे ग्रामीण और गरीब वर्ग के लोगों को नाम हटाने का खतरा कम होगा।
सुप्रीम कोर्ट क्यों सुपौल और किशनगंज पर नजर रख रहा है?
इन जिलों में नाम हटाने की दर दूसरे जिलों की तुलना में दोगुनी थी। जांच में पता चला कि बहुत से नाम बिना सत्यापन के हटा दिए गए। कई मामलों में वोटर्स को आपत्ति दर्ज करने का अवसर नहीं मिला। ये न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है।
अगले चरण में क्या अलग है?
पहले चरण में बहुत से नाम बिना स्पष्ट कारण हटाए गए। अब आयोग ने बूथ स्तरीय अधिकारियों को अधिक प्रशिक्षित किया है और आधार को दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया है। इसके अलावा, ऑनलाइन आपत्ति प्रणाली को भी सुधारा गया है।
क्या ये संशोधन चुनाव के परिणाम को बदल सकता है?
हाँ, बिल्कुल। बिहार में लगभग 20 विधानसभा क्षेत्रों में जीत का अंतर 2-5% के बीच है। 47 लाख नाम हटाने से ये क्षेत्रों में मतदाता आधार बदल सकता है। अगर एक दल के आधार के लोगों के नाम हट गए, तो वो चुनाव खो सकता है — बिना किसी चोरी के।
क्या अन्य राज्यों में भी ऐसा होगा?
जी हाँ। उत्तर प्रदेश में तो 1.2 करोड़ नाम हटाए जाने की संभावना है। तमिलनाडु में भी अलग-अलग भाषाई और जातीय समूहों के नाम आयोग की नजर में हैं। ये एक देशव्यापी प्रक्रिया बन रही है — और इसका असर भारत के लोकतंत्र के भविष्य पर पड़ेगा।